बोझ उतर गया - लेखनी कहानी -19-Jan-2024
बोझ उतर गया
यह घटना उस समय की है - जब ठाकुर साहब पुरानी हवेली से नए बंगले में शिफ्ट हो रहे थे, साथ ही सारा सामान भी लाया जा रहा था, पर मालकिन ने सभी नौकरों से साफ कह दिया था,
पुराना फालतू का कबाड़ यहां जमा न करें, बाहर से ही भंगार वाले को देकर- जो मिले उसे अपना इनाम समझ रख लें।
विशंभर( ठाकुर साहब का सबसे पुराना और वफादार सेवक) जब शाम 4:00 बजे दिन भर का आठवां चक्कर लेकर बंगले में दाखिल हुआ तो देखा- ठाकुर साहब ने बाकी सब नौकरों की क्लास लगा रखी थी।
उन्हें यूँ गर्दन लटका कर खड़े देख, वह आगे बढ़कर पूछ बैठा- "मालिक क्या बात है"?
मालूम चला- एक नौकर ने जिसे ठाकुर साहब ने विशंभर की सिफारिश पर रखा था, उसने बिटिया का वह संदूक जिसमें सारे खेल खिलोने थे, उसे कबाड़ समझकर भंगार वाले को थमा दिया है।
जब से बिटिया लाए गए सामान में अपना संदूक तलाश रही है, सुबह से उदास है, भोजन भी नहीं किया है- जिद्द पर अड़ी है।
ठाकुर साहब - “विशंभर गलती तो हुई है, अब इस गलती को सुधार लो, तुम ही कुछ करो- चाहे जैसे हो, वह संदूक वापस ले आओ, जो भी कीमत हो- हम चुकाने को तैयार हैं, बिटिया की उदासी हमसे देखी नहीं जाती”।
“तुम्हारी मालकिन को समझा पाना तो मेरे बस का है
नहीं, इन सब से मालूम करो और उस भंगार वाले को ढूंढ निकालो”।
विशंभर- “जी हुकुम आप चिंता ना करें, मैं ले आऊंगा - बिटिया का संदूक”
ठाकुर साहब विशंभर का आश्वासन सुनकर परेशान होते हुए बरामदे की ओर चले गए—--------
विशंभर नए लड़के के पास जाकर बोला - "तुझ पर तो सर मुड़वाते ही ओले पड़ जाए, जल्दी बता किस घोंचू को संदूक दिया तूने",
नए लड़के का नाम दीपू था वह बोला - "काका मुझे क्या पता था ऐसा होगा, मालकिन के कहने से ही ऐसा किया, मैंने देखा था, उस संदूक में पुराने और कुछ टूटे खेल खिलोने थे- तो मैंने भंगार में दे दिए"।
विशंभर - “अरे अकल उतनी ही इस्तेमाल करनी चाहिए जितनी हो, बिटिया सवेरे से उस बक्से (संदूक) की राह तक रही है और तूने कांड कर दिया, उस कबूतर का हुलिया बता, कब दिया? उसे दिए हुए कितना समय हुआ"?
दीपू- “काका इस गाड़ी से पहले जो गाड़ी सामान लेकर आई थी, उसी में बक्सा था- तभी सामने से साइकिल पर एक भंगार वाला गुजर रहा था, मैंने आवाज लगाकर उसे ₹25 में बेचा था और हम सब ने उन रूपयों की, गाड़ी खाली करके चाय भी पी ली”।
विशंभर- “बच्चू जो ₹25 में बेचा है ना, वह अनमोल था, दुआ कर की संदूक मिल जाए, वरना तुम सब की आज खैर नहीं, तुमने अब तक ठाकुर साहब का प्यार ही देखा है”।
विशंभर- “तू पहचान तो लेगा उस नमूने को”
दीपू- “हां काका क्यों नहीं”।
विशंभर- “चल फिर जल्दी कर, घंटाभर होने को है, क्या पता कहां से कहां निकल गया हो"?
विशंभर दीपू को साथ लेकर आसपास की गलियों और हर नुक्कड़ पर पूछता हुआ, आगे बढ़ रहा था - तभी उसे एक भंगार वाला साइकिल पंचर लगवाते दिखाई दिया, करीब जाकर देखा तो वह कोई और था,
दीपू ने उसका हुलिया बताया- तो वह बोला - “हां भाई उसका नाम श्यामचंद है, उसकी साइकिल तो कब की लद गई थी, अब तक तो वह अपने गोदाम पहुंच गया होगा, पुरानी पुलिया के नीचे ढलान में जो कबाड़ गोदाम हैं- वह वही अपना माल बेचता है”।
विशंभर ने उसे धन्यवाद दिया और दीपू को पीछे बैठाकर फटफटिया को दौड़ा दिया था, शायद उसने अपनी जिंदगी में इससे तेज गाड़ी कभी नहीं दौड़ाई होगी।
दीपू बोला- “काका धीरे चलो, ऊपर पहुंचाने का इरादा है क्या?
विशंभर बोला- “चुपचाप बैठा रहे, ध्यान मत भटका”।
दोनों कबाड़ गोदाम पहुंचे तो देखा- गोदाम का सेठ टेढ़ी नजर से उन्हें देखकर, दोनों हाथ गर्दन के पीछे लगा, सोने का नाटक कर रहा था।
विशंभर उसके पास आकर बोला - “सेठ जी नमस्कार एक जरूरी काम था आपसे”।
सेठ बोला- “बोलो क्या है”?
विशंभर- “श्याम चंद भंगारी आपके यहां ही भंगार देता है"।
सेठ - “हां क्या हुआ” ?
विशंभर- “गलती से हमने उसे एक कीमती संदूक दे दिया है, वह वापस चाहिए था, बड़ी कृपा होगी आपकी, वह लकड़ी का सुन्दर नक्शीदार पुराना संदूक है”।
सेठ लेटे लेटे ही बोला- “अरे भाई ऐसा क्या था उसमें”?
विशंभर- “बड़ा अनमोल सामान था उसमें”।
सेठ - "अरे हीरे जवाहरात सोना चांदी था क्या"?
विशंभर - "हां",-------
हां सुनते ही सेठ को जैसे झटका लगा हो, वह फौरन उठ बैठा और बोला - "क्या कहा"?
विशंभर- "हां सेठ जी बिल्कुल ठीक सुना आपने"।
उधर दीपू कुछ बोलने को हुआ-"पर काका"-----,
विशंभर ने उसे घूर कर देखा- तो वह एकदम चुप हो गया।
विशंभर सेठ से बोला - "बड़ी भारी गलती हो गई"।
सेठ - “अरे भाई, आज का सारा भंगार अभी-अभी गाड़ी में लोड करवाके, रवाना कर- बैठा हूं, अब तक तो गाड़ी नुक्कड़ पार कर गई होगी”
विशंभर- “सेठ जी मैं मुंह मांगी रकम देने को तैयार हूँ, जैसे भी हो गाड़ी वापस बुला लीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी”।
इतना कहकर विशंभर सेठ के पैर छूकर हाथ जोड़ खड़ा हो गया था, उसका दारूण चेहरा देखकर सेठ मान गया,
उसने ड्राइवर को तुरंत फोन कर- फौरन वापस आने के लिए कह दिया था।
सेठ विशंभर से बोला- “हीरे-जवाहरात की बात किसी ओर को मत बताना- वरना बवाल हो जाएगा, मैं देखता हूं क्या करना है”?
विशंभर - हामी में सर हिलाते हुए बोला- "जी सेठ जी"।
सब गाड़ी का इंतजार करने लगे----------------------------
दीपू विशंभर से बोला- “इसे मालूम चलेगा तो”
विशंभर- “अबे घनचक्कर मुंह बंद रख, कभी-कभी गधे को भी बाप बनाना पड़ता है, सीधी उंगली से घी ना निकले तो टेढ़ी करनी पड़ती है, उससे भी ना निकले तो घी के कनस्तर का संकीर्ण छेद छोड़कर पूरा ऊपरी हिस्सा भी उड़ाना पड़ता है”।
विशंभर का एक ही उसूल था- 'शाम दाम दंड भेद' किसी को नुकसान पहुंचाए बगैर अपना काम बन जाना चाहिए बस।
उधर दीपू और विशंभर की बड़बड़ सुनकर, सेठ बोला- “तुम क्या घी का कनस्तर लेने आए हो”।
विशंभर- “अरे सेठ जी यह घबरा रहा है, संदूक में क्या है? किसी को मालूम ना चले, इसे कोड वर्ड में समझा रहा था”।
सेठ- “अरे भाई गाड़ी आने दो, वो सब तुम मुझ पर छोड़ दो”।
थोड़ी देर में कबाड़ से भरा टैम्पो गोदाम के सामने आकर रूकता है।
विशंभर और दीपू नजर दौडाते हैं, टैम्पो एकदम खचाखच भरा था पर वह संदूक ऊपरी हिस्से में कहीं नजर नहीं आ रहा था।
सब ने मिलकर टैम्पो खाली करना शुरू किया, तकरीबन आधा टैम्पो खाली हो जाने के बाद- वह संदूक नजर आ ही गया।
दीपू ने देखते ही पहचान लिया था, विशंभर की जान में जान आई और संदूक को नीचे जमीन पर उतारा गया।
सेठ ने विशंभर को संदूक एक तरफ ले जाकर खोलकर दिखाने के लिए बोला, विशंभर ने संदूक खोला तो उसमें सुन्दर-सुन्दर खिलौने और गुड्डे गुड़ियां इत्यादि सामान भरा हुआ था।
सेठ बोला- “अरे भाई यह सब क्या है?।
विशंभर ने हाथ जोड़कर सेठ को अपनी सारी व्यथा कह सुनाई और बोला- “आपको जो तकलीफ दी उसके लिए क्षमा चाहता हूं, जो भी मजदूरों ने मेहनत की उसका हरजाना और आप जो इस बक्से का लेना चाहे, वह मैं देने को तैयार हूं, अभी आप यह पैसे रख लीजिए”।
इतना कहकर उसने ₹500 रूपये आगे बढ़ा दिए थे,
कबाड़ गोदाम का सेठ पैसा लौटाते हुए बोला था - “भाई हम कबाड़ का सौदा करते हैं, दिल के अरमानों का सौदा हमसे ना हो पाएगा, यह पैसा तुम वापस रख लो और अपनी अमानत ले जाओ”।
विशंभर और दीपू दोनों ने हाथ जोड़कर सेठ का बहुत-बहुत आभार व्यक्त किया।
संदूक लेकर विशंभर और दीपू दोनों रवाना हुए,------
बंगले में दाखिल होते ही उन्होंने देखा सामने बगीचे में ठाकुर साहब बेचैनी से चहल कदमी कर रहे थे, उन्होंने सीधा जाकर उन्हें संदूक दे दिया और उन्हें संदूक देते ही विशंभर के दिल से आवाज निकल पड़ी “बोझ उतर गया”।
🙏🙏🙏🙏🙏
दिलावर सिंह
# प्रतियोगिता हेतु
Shnaya
22-Jan-2024 12:19 AM
Very nice
Reply
नंदिता राय
22-Jan-2024 12:12 AM
Nice one
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Khushbu
21-Jan-2024 11:37 PM
Nice
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